रविवार, 6 सितंबर 2015

अपने बच्चों के कत्ल की क्या है वजह?

आरूषी हत्याकांड के बाद सबसे सनसनीखेज हत्याकांड शीना वोरा का रहा। इन दोनों ही मामलों में सबसे ज्यादा चौंकाने वाला सामान्य पहलू है माता-पिता का ही हत्या में हाथ होना। खबरों के लिहाज से ये तथ्य आम पाठकों के मनोभाव को बुरी तरह से झकझोर देता है कि कैसे मां बाप ही अपने बच्चों का कत्ल कर सकते हैं। इन दोनों ही मामलों में और ऐसे ही ज्यादातर मामलों में सामाजिक सम्मान एक ऐसा पहलू है जो ऐसे जघन्य अपराध की जड़ में दिखता है। हांलाकि शीना के मामले में आर्थिक पहलुओं को भी खंगाला गया है। फिर भी जो कहानी अभी तक सामने आई है उसके मुताबिक इंद्राणी के तीसरे पति के छोटे बेटे राहुल और शीना के प्रेम संबंधों से ये परिवार परेशान था। बेशक इनका आपस में कोई लेना देना नहीं था लेकिन सामाजिक रूप से वे सौतेले भाई बहन तो थे ही। आरूषि के मामले में उसके भी भटक जाने की वजह सामने आई। नौकर से उसके संबंध जैसी खबरें भी आपने पढ़ी और सुनी। इन जैसे मामलों को जब आप सुनते देखते या पढ़ते हैं तो रिश्तों की उलझन और समाज की नजरों के बारे में एक अलग दुनिया को अपने सामने पाते हैं।
इंद्राणी अपने जीवन में कई ऐसे काम करती रहीं जो शायद ही समाज पचा पाए। उनके मामले में भी ये उनका निजी मामला था लेकिन जब इंद्राणी ने समाज का सम्मान हासिल कर लिया तो वो अपनी बेटी के मामले में ये सब पचा नहीं पाईं। यही बात तलवार दंपत्ति के मामले भी सामने आई। उनका अपना निजी जीवन समाज के सामने जैसा था क्या उतना ही साफ सुथरा समाज की नजरों से छुपकर भी था? इंद्राणी और पीटर का वर्तमान जीवन चमक दमक वाला है लेकिन क्या समाज की नैतिकता के दायरे में उतनी ही चमक उनके असली जीवन में थी? इन दोनों ही परिवारों के बच्चे सही थे या नहीं ये तो एक अलग विषय है लेकिन क्या इस बात में किसी को भी संदेह हो सकता है कि उनके संस्कारों और जीवन के भटकाव के लिए उनके अपने ही मां बाप जिम्मेदार थे। ये विषय इसीलिए महत्वपूर्ण है क्यूंकि अपनी गलती से उपजे बच्चों के भटकाव के लिए इन बच्चों को सजा देना कैसे न्याय संगत हो सकता है?
दो महत्वपूर्ण पहलू हमारे सामने आते हैं। एक सामाजिक सम्मान-प्रतिष्ठा-पहचान और दूसरा परिवार और रिश्तों का ताना बाना। सिर्फ ऐसे ही मामलों पर नजर न दौड़ाएं जहा कोई जघन्य अपराधिक घटना हो गई है। आमजीवन में परिवारों और सामाजिक सोच पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। सामाजिक प्रतिष्ठा क्या है?  इस प्रश्न पर विचार करते हुए सबसे सामान्य उत्तर आप यही पाएंगे कि जिस समाज में हम रह रहे हैं वहां हमारे रहन-सहन, आचार-विचार और व्यवहार के बारे में अन्य लोगों की क्या राय है? हम दूसरों की नजरों में अच्छा दिखना और रहना चाहते हैं लेकिन हम सचमुच अच्छे दिखने और अच्छे होने पर कोई विचार ही नहीं कर रहे हैं। दूसरों की नजरों में खुद को बेहतर दिखाने की कोशिश ही आपके व्यक्तित्व में कई झूठ ले आती है। आप जैसे हैं उससे बेहतर खुद को दिखाने की कोशिश करते हैं और समाज भी आप जैसे हैं उससे बेहतर ही आपको देखता है। होने और दिखने के इस झूठ में पिसते हैं वो लोग जो किसी की जिंदगी का एक किरदार भर होते हैं। आरूषी और शीना जैसे बच्चे ऐसे ही नाम हैं जो अपने मां बाप की समाज में दिखने वाली झूठी प्रतिष्ठा में एक किरदार भर होते हैं। दूसरा महत्वपूर्ण पहलू रिश्तों की उलझन है जो परिवार के सदस्यों की परिवार में भूमिका से बनता है।
इस उलझन पर दो तरीकों से विचार किया जा सकता है। एक फिलॉसफिकल तरीके से दूसरा व्यवहारिक तरीके से। आध्यात्मिक या फिलॉसफिकल चिंतन तो सीधी बात कहेगा कि अपेक्षाओं और मोह के बंधनों से ये रिश्ते भ्रष्ट होते चले जाते हैं। यदि सभी चिंतन के इस स्तर को पा लें (जो कि उन्हे पाना चाहिए) तब तो इस तरह कि कहानियां सामने आएंगी ही नहीं। सभी अपनी स्वतंत्रता की तरह परिवार के अन्य सदस्यों की स्वतंत्रता पर विचार करने लगें तो रिश्तों में उलझन आने का प्रश्न ही नहीं उठता। माता पिता अपने बच्चों के हितों के अनुरूप उनका सहयोग करें, समय दें, शिक्षा दें तो उनके भटकाव की आशंका कम होती है। हम सब जानते हैं कि लोग गलतियां करके ही सीखते हैं लेकिन जब अपने बच्चे गलती करते हैं तो उसे सहजता से नहीं लिया जाता। हम सब चाहतों का एक बड़ा पुलिंदा अपने बच्चों के सिर पर डाल कर रखते हैं। हम चाहते हैं कि वे सामाजिक प्रतिष्ठा को और चमकदार बनाने में महत्वपूर्ण किरदार निभाएं। यदि वे इसके उलट करते हैं तो उनसे अपेक्षाओं के बजाए नफरत होने लगती है। ये नफरत आपकी सामाजिक प्रतिष्ठा और उस पर होने वाले नुकसान से सीधे अनुपात में हो जाती है। ज्यादा प्रतिष्ठित लोगों को अपने बच्चों की गलतियां ज्यादा नगवार गुजरती हैं क्यूंकि वे बच्चे उनकी कहानी में सही किरदार की तरह फिट नहीं बैठ पाते हैं।
अब व्यवहारिक दृष्टिकोण से इस परेशानी पर विचार करना चाहिए। कितने माता पिता हैं जो अपने बच्चें के विकास के दौरान ईमानदारी से अपना किरदार निभाते हैं? जिस तरह ये बच्चे उनकी जिंदगी और प्रतिष्ठा की कहानी में एक रोल अदा करते हैं उसी तरह इन बच्चों की अपनी जिंदगी में भी तो माता-पिता का अहम किरदार होता है। माता पिता बच्चों से तो उनके सम्मान की रक्षा की अपेक्षा रखते हैं लेकिन वे अपने बच्चों के मनोभावों को कितना समझ पाते हैं? बच्चों की अपेक्षाओं का कितना ज्ञान उन्हें हो पाता है ये हम सबके लिए एक विचारणीय बिंदु है। शीना अपनी डायरी में जो कुछ लिखती रही या आरूषि अपनी जिंदगी में जो कुछ लिखती रही, उसकी खबर रखने से ज्यादा दिक्कत उन बातों के दुष्परिणाम सामने से होती दिखती है। यही वजह है कि जब बातें हाथ से निकल जाती हैं तो माता पिता इसकी लीपोपोती के आसान रास्ते ढूंढते हैं। कुछ इतने परेशान हो जाते हैं कि वो शीना और आरूषि जैसी कहानियां रच डालते हैं।
माता पिता को बच्चों की जितनी जरूरत है उतनी ही या उससे कहीं ज्यादा जरूरत बच्चों को अपने माता पिता की भी है। बच्चे आज की झूठी प्रतिष्ठा की दौड़ में माता पिता के लिए अपनी फिल्म के किरदार बन कर रह गए हैं। लाड़ प्यार के नाम पर उन्हें पैसा और आजादी दे देना उन्हें अच्छा भविष्य नहीं दे रहा है बल्कि माता पिता के लिए परेशानियों को और बढ़ा ही रहा है। अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत... ये कहावत तो बहुत कहते सुनते हैं लेकिन इस पर अमल नहीं करते। बात से रईस और रसूखदार लोगों की नहीं है, आम तौर पर हम बच्चों को क्या सिखा रहे हैं, क्या हम खुद उन्हें सिखाने के लायक हैं, क्या हम खुद ही कुछ सीख पाए हैं? या मां बाप के साथ संबंधों की गड़बड़ की एक परंपरा को ही हम आगे बढ़ा रहे हैं। इंद्राणी जो कुछ पाया वहीं अपने बच्चों को दिया लेकिन ये उसकी मजबूरी नहीं थी। वो चाहती तो जो गलतियां उसके मां बाप ने की वो उन्हें दोहराने से बच सकती था। ये भटकाव कब गंभीर मनोरोग का रूप ले लेता है कहना मुश्किल है लेकिन एक बार इस राह पर जो भटक गया उसकी स्वविवेक से वापसी तो संभव नहीं हो पाती है। माता पिता खुद को इतना योग्य और समझदार मान बैठते हैं कि किसी के सलाह मशविरे की उन्हें कोई आवश्यकता ही महसूस नहीं होती।
बच्चों को शिक्षा और संस्कार देने से पहले उन्हें खुद के भीतर पैदा करना जरूरी है। आपकी प्रतिष्ठा की भूख आपके बच्चों का कोई भला नहीं करती है उन्हें माता पिता का समय और सही मार्ग दर्शन चाहिए। वहीं आज के बदलते परिवेश में शिक्षकों को भी अभिभावकों के द्वारा दी जाने वाली शिक्षा की कमी को पूरा करना होगा। नैतिक शिक्षा जैसे विषय स्कूलों में हमेशा से पढ़ाए जाते रहे हैं लेकिन इन्हें और व्यवहारिक किए जाने की जरूरत है। अपेक्षाओं और महत्वकांक्षा की दौड़ में भटके हुए मां बाप का अपने बच्चों से सही राह पर चलने की अपेक्षा करना बेमानी है। यदि संभव हो तो माता पिता को अपनी भागदौड़ की जिंदगी से थोड़ा समय निकाल कर अच्छा अभिभावक बनने का भी कोई कोर्स करना चाहिए। यदि ऐसे कोर्स उपलब्ध नहीं हैं तो कम से कम चर्चा करके, बच्चों के मनोविज्ञान और उनकी जरूरतों को थोड़ा समझकर उनके लिए अपने समय को नियोजित करके कुछ प्रोग्राम बनाए जा सकते हैं। शीना आरूषी और ऐसे अनगिनत मामलों में माता पिता अपनी कमी का ठीकरा बच्चों पर फोड़ते हैं। पहले तो आप स्वयं को अपने बच्चों की वर्तमान स्थिति के लिए ईमानदारी से जिम्मेदार माने तभी आगे बात बढ़ पाएगी।

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