रविवार, 9 मई 2010

गुदड़ी के लाल

आईपीएल, ललित मोदी, सदन में हंगामा, इस्तीफों का सिलसिला, कसाब को फांसी आदि-इत्यादि के बीच आशु मिश्रा और हरीशचन्द्र जैसे लोगों से मुलाक़ात राहत देने वाली होती है और एक बूस्टर का काम भी करती है। ये दोनों नाम बड़े राजनेताओं की तरह या बॉलीवु़ड की हस्तियों की तरह मी़डिया प्रिय नाम तो नहीं हैं लेकिन मुझे लगता है असल ज़िंदगी के हीरो ऐसे ही लोग होते हैं। हरीशचन्द्र सबसे यंग आईएएस चुने गए हैं उनकी उम्र 22 साल है और आशु उनके प्रेरणा स्त्रोत हैं और दिल्ली यूनिवर्सिटी से एम. ए. कर रहे हैं।

सैंकड़ों छात्र आईएएस चुने जाते हैं और उनके दोस्तों और प्रेरणा स्त्रोतों की भी लंबी फेहरिस्त होती है फिर ऐसा क्या ख़ास है इन दोनों में? ख़ास है इन दोनों के हालात और पृष्ठभूमि जिसमें इन्होंने ये क़ामयाबी हासिल की है। ख़ास है इनका जज़्बा जो दुष्यंत कुमार के शेर, “कौन कहता है आसमां में सुराख़ नहीं होता एक पत्थर तो तबियत से उछालों यारों” या बशीर बद्र के शेर, “मैं दरिया हूं अपना हुनर जानता हूं जहां से गुज़रुंगा रास्ता बना लूंगा”, को ज़िंदगी की हक़ीकत साबित करते हैं।



इन दोनों की पृष्ठभूमि पर नज़र दौड़ाएंगें तो शायद मुझ पर पड़े इनके प्रभाव को आप और बेहतर तरीक़े से समझ पाएंगे और शायद आपका जज़्बा और कुछ कर गुज़रने की तमन्ना एक बार फिर जाग उठेगी, अगर वो सो चुकी है तो। सबसे पहले बात हरीशचन्द्र की ये दिल्ली के एक बड़े स्लम किंग्सवे के रहने वाले हैं इनके पिता मज़दूर हैं और मां दूसरों के घरों में झाड़ू पोछा और बर्तन मांझने का काम करती हैं। हर साल स्कॉलरशिप हासिल करने में कामयाब रहने वाले हरीश मानते है कि ये हमारे देश की ख़ूबसूरती है कि मेरे जैसी पृष्ठ भूमि का एक नौजवान अपने सपनों को पूरा कर सकता है। अब बात अगर आशू मिश्रा कि करें तो उनके सामने चुनौती कमज़ोर पृष्ठभूमि और सहुलियतों की कमी से कहीं बढ़कर है, दरअसल आशू जन्मांध हैं लेकिन इसके बावजूद वो न सिर्फ हरीश के प्रेरणा स्त्रोत है बल्कि ऐसे कई छात्रों के लिए एक मिसाल हैं जो ज़िंदगी की चुनौतियों के सामने घुटने टेक देते हैं।

दसवीं की परीक्षा में जब हरीश महज़ 45 प्रतिशत अंक ला पाए थे उस वक़्त आशू 75 प्रतिशत अंकों के साथ टॉपर रहे थे। आशू एम ए इन पॉलिटिकल सांइस के फर्स्ट ईयर में अव्वल नंबर रहे हैं और हरीश को उम्मीद है कि वो इस बार के गोल्ड मेडलिस्ट भी रहेंगे। इन दोनों का ही सपना है सबसे पहले अपने परिवार के बाक़ी सदस्यों के जीवन को बेहतर बनाना, छोटे भाई-बहनों का अच्छा करियर बनाने में उनकी मदद करना। हांलाकि ये दोनों इस बात को भी मानते हैं कि अच्छा करियर बनाने के लिए किसी भी तरह की बाह्य मदद से ज़्यादा आंतरिक इच्छाशक्ति और कुछ कर गुज़रने के जज़्बे की ज़रुरत होती है।

कोचिंग क्लासेस की तलाश में देश के कोने-कोने में भटक रहे छात्रों के लिए ये दोनों बड़ी प्रेरणा है क्योंकि इन दोनों ने कभी किसी कोचिंग में क़दम नही रखा, हां सही मार्ग दर्शन इन्हे हमेशा मिलता रहा लेकिन वो भी इनके अपने प्रयासों और इच्छा शक्ति के चलते। माता-पिता के सपोर्ट और तमाम सहुलियतों के बावजूद जब छात्र फ्रस्ट्रेशन का शिकार होते हैँ और आशू और हरीश जैसे छात्र कामयाबी हासिल करते हैं तो एक बात तो साफ हो जाती है कि करियर और कामयाबी के लिए मज़बूत पृष्ठभूमि से ज़्यादा ज़रूरी है सही लक्ष्य का चुनाव और उसे लेकर एकाग्रता।

बातचीत के अंत में इन दोनों ने एक मूलमंत्र भी दिया जो आप सबके साथ साझा कर रहा हूं। इनके मुताबिक कोई प्रयास, पहला प्रयास मानकर नहीं करना चाहिए बल्कि अंतिम प्रयास मानकर करना चाहिए। पहला प्रयास असफल होने के बाद दूसरे प्रयास की संभावना का विचार आपके प्रयास को कमज़ोर करता है। साथ ही हरीश का कहना है कि जब भी नकारात्मक विचार आए, चुनौतियां कठिन लगे तो अपने से ज्यादा परेशानियों को झेल रहे लोगों को देखकर खुद की बेहतर स्थिति के लिए ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए। मेरी पृष्ठभूमि बहुतों के लिए एक बुरा सपना हो सकती है लेकिन मेरे सामने भी आशू जैसा एक उदाहरण है जो मुझसे बड़ी चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना कर रहा है।

3 टिप्‍पणियां:

शिवम् मिश्रा ने कहा…

बहुत बढ़िया लेख !!

आशु मिश्रा और हरीशचन्द्र को हार्दिक शुभकामनाएं !!






मातृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ !!

वन्दे मातरम !!

Parul kanani ने कहा…

jindagi ke asli kirdar yahin hai
jindagi ki jinda misaal hai ye..
praveen ji ..shukriya,hum tak pahunchane ke liye!

Prataham Shrivastava ने कहा…

पहला प्रयास मानकर नहीं करना चाहिए बल्कि अंतिम प्रयास मानकर करना चाहिए। विचार साझा करने के लिए धन्यबाद प्रवीण जी