शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012
रवींन्द्र शाह-एक बेहतरीन पत्रकार और एक शानदार इंसान
पत्रकारिता जगत के लिए एक बड़ा झटका है आउट लुक के एसोसिएट एडिटर रविन्द्र शाह का अचानक दुनिया को अलविदा कह देना। ये मेरे लिए एक निजी क्षति भी है क्योंकि उनके प्रिंट से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में पदार्पण से लेकर उनके जीवन के अंतिम क्षणों तक में उनसे संपर्क में रहा। महाशिवरात्रि की शाम को मध्यप्रदेश के सीहोर में एक दुखद हादसे में उनकी मौत हो गई। इसी दिन हादसे से कुछ घंटे पहले उनसे लंबी बातचीत हुई। शाम को भोपाल से वो दिल्ली के लिए रवाना होने वाले थे और अगले दिन हम लोग मुलाकात करने वाले थे। सच कहुं तो ये सब लिखते हुए अब भी विश्वास नहीं हो रहा। एक पत्रकार के नाते उनका लोहा हर किसी ने माना, खास तौर पर प्रिंट पत्रकारिता में उनका कोई सानी नहीं था। हाल के दिनों में चाहे आडवाणी और गडकरी की राजनैतिक यात्राओं पर उनका विशेष कवरेज हो या फिर ड्रग माफिया और बिल्डर माफिया के खिलाफ की गई उनकी बेबाक खोजी पत्रकारिता हो वो हरफनमौला पत्रकार थे।
लगभग 30 साल के पत्रकारिता जीवन में उन्होंने पत्रकारिता के हर पहलू को नजदीक से जाना समझा। इंदौर का ही होने के नाते मैं उन्हे तबसे जानता हूं जब मैं 10-12 साल का था। दरअसल मेरे चाचा और शाह साहब गहरे दोस्त थे और दोनों ने अपने पत्रकारिता जीवन की शुरूआत साथ ही की थी। नई दुनिया, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण जैसे तमाम बड़े अखबारों के साथ लंबा समय बिताने के बाद उन्होंने 2003 में सहारा समय के राजस्थान चैनल को ज्वाइन किया। 2003 में ही मैंने भी इंदौर से दैनिक भास्कर के बाद दिल्ली आकर सहारा समय ज्वाइन किया और तब रवीन्द्र शाह जी को और नजदीक से जानने का मौक़ा मिला। ख़बरों और कार्यक्रमों को लेकर उनकी गहरी समझ को वहां 3 साल तक काम करते हुए मैंने देखा। हांलाकि इसके बाद मैं जनमत चला गया और शाह साहब ने बाद में S1 और आज़ाद जैसे चैनलों को हैड किया।
वो ये बात जानते थे कि उनकी असली दुनिया कलम की दुनिया है यहीं वजह थी की अलग अलग चैनलों से जुड़े होने के बावजूद वो अखबारों में सतत लेखन करते रहे। आखिरकार उन्हे दोबारा प्रिंट में पूरी तरह से लौटना पड़ा और उन्होंने आउटलुक ज्वाइन कर लिया। दो अहम बातें उन्होंने हाल के दिनों में मुझसे साझा की थी पहली दोबारा प्रिंट में वापसी करने के बाद उनकी खुशी और दूसरी दोबारा प्रिंट में आने से पहले का उनका द्वंद्व। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के अंतर और गहरी खाई के बारे में उनसे लंबी बात हुई। 9 साल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ बिताए लेकिन वो बात नहीं दिखी जो प्रिंट के साथ थी। इसीलिए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बिताए समय में वो खुद को सहज महसूस नहीं कर पाए। जबकि आउटलुक ज्वाइन करने के बाद से उनकी लगभग हर स्टोरी को काफी सरहाना मिली और उन्हे भी ये महसूस होने लगा था कि वो इसी प्रिंट की दुनिया के लिए ही बने हैं।
कई नामचीन प्रकाशकों के लिए उन्होंने बड़ी किताबें संपादित की हैं और उनके मार्गदर्शन में किताबें लिखने वालों से भी मैं परिचित हूं जिनकी किताबें बेस्ट सेलर भी बनीं। हाल के दिनों में भी वो सक्रिय रूप से किताबों के संपादन के साथ-साथ मीडिया इंस्टीट्यूट्स के साथ जुड़कर भावी पत्रकारों का भी मार्ग दर्शन कर रहे थे।
निजी जीवन में मुलाकात के अलावा कई कार्यक्रमों में भी उनसे मुलाकात होती थी और सहज सरल और मस्तमौला प्रवृत्ति के रवींद्र जी का गंभीर और फिलॉसॉफिकल चेहरा यहां सामने आता था। हाल में दूरदर्शन के कार्यक्रम AWAKENING INDIA वो साथ में थे और यहां उन्होंने विवेकानंद के समकक्ष मार्गदर्शकों की कमी को युवाओं की निराशा की बड़ी वजह बताया। वो युवाओं के राजनीति में आने को भी परिवर्तन का बड़ा तरीका मानते थे। निजी तौर पर वो मेरे लिए एक गुरु से कम नहीं थे चाहे वो स्टोरी आयडिया की बात हो या प्रोग्रामिंग वो बेहतरीन सुझावों के साथ हमेशा तैयार रहते थे।
रोटरी इंटरनेशनल के एक कार्यक्रम में MEDIA TOMMOROW विषय पर बोलने के लिए मीडिया की कई हस्तियों के साथ वो भी वक्ता के तौर पर मौजूद थे। तकनीक के बढ़ते इस्तेमाल और भविष्य में होने वाले बदलावों के बारे में उन्होंने अपनी बात रखी और बड़ी खूबसूरती से उन्होंने बताया कि कैसे आने वाले समय जगह जगह मौजूद कैमरों की वजह से हर पल को सहेजना आसान हो जाएगा। वाकई में जब इस कार्यक्रम की क्लिप या दूरदर्शन पर उनके साथ किए शो को देखता हूं तो इस खबर पर अब भी भरोसा नहीं होता।
सबसे पहले मेरे मित्र दुर्गानाथ स्वर्णकार ने मुझे इस घटना की जानकारी दी हांलाकि तब तक इस घटना कि पुष्टी नहीं हो पा रही थी। इसी बीच इंदौर से अभय जैन ने भी यहीं जानकारी दी और फिर तो फोन कॉल्स का सिलसिला शुरू हो गया। स्थानीय पत्रकारों ने इस बात की पुष्टी की और फिर ना चाहकर भी भरोसा करना पड़ा की वो हमारे बीच नहीं रहे। डॉ वर्तिका नंदा ने फोन कर इस बात की पुष्टी करनी चाही और बात करते करते हम दोनों के गले रुंध गए। मेरे बड़े भाई श्रीवर्धन त्रिवेदी भी उनसे करीब से जुड़े थे और इस खबर को सुनने के बाद वो भी बेहद दुखी हैं। प्रभात डबराल जी को जब ये खबर दी तो वो पहले से ही इस खबर को सुनने के बाद दुखी थे उन्होंने कहा इतना बेहतरीन और मिलनसार इंसान कैसे जा सकता है। साथ ही साथ उन्होंने उनके परिवार की आजीविका की भी चिंता जताई। पत्रकारों की ये ही दुर्दशा है कि उनके आकस्मिक निधन के बाद परिवार परेशानियों के बोझ तले दब जाता है। शाह घर में कमाने वाले अकेले शख्स थे और बीमार मां को देखने के लिए उन्हें अचानक इंदौर जाना पड़ा। ट्रेन से उन्हें रात 9 बजे दिल्ली के लिए रवाना होना था। इंदौर से रवाना होने से पहले फोन पर उनसे बातचीत हुई और इसके कुछ घंटों बाद ही सीहोर में उनके एक्सिडेंट की ये खबर आई।
वो जल्द ही एक मैगजीन लॉंच करना चाह रहे थे। जिसमें वो बड़ी खबरों के दब जाने के बाद उनके फॉलोअप को लाना चाहते थे। उनका मानना था कि कई खबरें मीडिया में छाई रहती हैं लेकिन फिर अचानक गायब हो जाती हैं और पाठक और दर्शक ठगा हुआ महसूस करते है और ईमानदार पत्रकारिता यही है कि हम उनके साथ न्याय करें और हर खबर का फॉलोअप रखें।
उनके इस सपने का तो नहीं कह सकता लेकिन एक ईमानदार पत्रकार के यूं अचानक चले जाने के बाद उसके परिवार के लिए क्या इस बिरादरी के बाकी लोग भी परिवार ही नहीं होते? अगर ऐसा है तो हमें इस दुख की घड़ी में उनके परिवार के साथ खड़े होना चाहिए और उनकी हर संभव मदद करनी चाहिए। मैं मध्यप्रदेश सरकार से भी गुजारिश करता हूं की पत्रकारिता में प्रदेश का नाम रोशन करने वाले इस बेहतरीन इंसान की उपलब्धियों को देखते हुए उनके परिवार को मदद पहुंचाना चाहिए। मैं उम्मीद करता हूं मेरे इन शब्दों को आप सहयोग देकर और मजबूत करेंगे। सच कहूं तो अब भी विश्वास नहीं हो रहा...................................................
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