बुधवार, 16 सितंबर 2009

“मीडिया मज़दूर संघ” की ज़रुरत

मीडिया मज़दूरों की बदहाली पर अपने ब्लॉग में जो कुछ लिखा उस पर कई प्रतिक्रियाएं मिली, लेकिन एक प्रतिक्रिया ने इन मज़दूरों की बदहाली के एक और पहलु पर मेरा ध्यान आकर्षित किया, जिसे मैं आपके साथ बांट रहा हूं।
“पिछले कुछ दिनों से आपका लिखा हुआ पढ़ने को मिल रहा है। इतनी व्यस्तता के बाद लिख रहे हैं – बधाई। लेखन का प्रभाव क्षेत्र जब बड़ा होता है तो प्रतिक्रिया स्वाभाविक हो जाती है। जिस सवाल को आपने (मीडिया मज़दूरों की बदहाली) उठाया है वो निश्चित तौर पर महत्वपूर्ण है। खास कर ऐसे वक्त में जब टीवी चैनल्स बढ़ रहे हों बावजूद मीडियाकर्मियों की स्थिति नाजुक बनी हुई है। ये बात अजीब है कि जो मीडियाकर्मी सरकार और दूसरे बड़े अधिकारियों के खिलाफ बोलने और लिखने में हिचक नहीं महसूस करते वो खुद अपने हक के लिए अक्सर मिमयाते नजर आते हैं। नहीं तो क्या वजह है कि जहां दूसरे क्षेत्रों में नौकरी की शुरूआत 15,000 रुपए के वेतन से होती है वहां मीडियाकर्मियों को इससे कम पैसे में सालों-साल नौकरी करने पर मजबूर होना पड़ता है। टीवी चैनल्स ने कुछ हद तक आर्थिक स्थिति के पक्ष को ठीक किया। लेकिन अब इस पर भी नजर लग गई है। नतीजतन, नौकरी पाना पहले तो रेत से तेल निकालने के बराबर है। और अगर मिल गई तो अस्तित्व बचाने की लड़ाई उससे भी कठिन होती जा रही है।”

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को भारत में पनपे बहुत समय नही हुआ है और अभी भी ये पनप ही रहा है लेकिन इस छोटे समय में ही कई उतार चढ़ाव देखने को मिल रहे हैं। जब प्राइवेट चैनल्स की तादाद बढ़नी शुरू ही हुई थी, तब भी अनुभवी पत्रकारों को ‘तोड़ने’ के लिए मोटी रकम का लालच दिया गया। इसके बाद इंडस्ट्री में जैसे भर्ती अभियान शुरू हो गया। पहले से जमे हुए चैनल्स से एक दो सीनियर्स को तोड़ो कुछ प्रोडक्शन एग्ज़ीक्यूटिव रखो, कुछ ट्रेनी और बाक़ी का काम मीडिया इंस्टीट्यूट्स के होनहार इंटर्न्स संभाल लेंगे। नए लोगों के लिए तो ये अच्छा प्लेटफॉर्म था लेकिन कथित सीनियर्स के लिए ये ख़तरनाक साबित हुआ। पहले तो उन्हे तोड़ने के लिए मोटी रक़म का लालच दिया गया और फिर जब मंदी की मार पड़ी तो गाज इन्ही पर गिरी। इस व्यवस्था ने पहले तो मीडिया को चकाचौंध का नाम दिया, मोटी कमाई का ज़रिया बनाया लेकिन चंद सालों में ही ये साफ़ हो गया की ये व्यवस्था नही अव्यवस्था थी।

इससे भी गंभीर पहलु है उन लोगों पर गाज गिरना जिन्हे न तो बहुत ज़्यादा तनख्वाह मिल रही थी और जो लंबे समय से चैनल्स में अच्छे काम की शाबाशी भी पा रहे थे। जिसका ख़मियाज़ा अब भुगतना पड़ रहा है। ओवरलो़ड हो चुके चैनल्स में मीडियाकर्मियों को खपाने की जगह नहीं है। हां किसी का पत्ता साफ़ करके कम पैसों मे वही काम करने वालों की तलाश जारी है। इसी के चलते कई ऐसे लोगों की भी छंटनी शुरू हो गई जिन्होंने अपने काम के बूते इसके बारे में कभी सोचा भी न था।

इसका ताज़ा उदाहरण एक ऐसा चैनल भी बना जो मीडिया के शुरुआती चैनल्स में शुमार है और स्थापित चैनल है। अब उसे ये महसूस हुआ की लोग ज़रुरत से ज़्यादा भर्ती हो गये हैं, दूसरे चैनल्स इसके ¼ स्टाफ़ से ही हमसे अच्छी टीआरपी ला रहे हैं, सो आव देखा न ताव सैंकड़ों मीडिया कर्मियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया। इनमें से कुछ पत्रकार अब भी मेरे संपर्क में है और इन्होंने अपनी आप बीती बताई। अलग अलग ब्यूरोज़ से रिपोर्टर्स को बुलाया गया फिर उन्हे स्ट्रिंगर के तौर पर काम करने का प्रस्ताव दिया गया या फिर नौकरी छोड़ देने के लिए कहा गया। कुछ ने मजबूरी में प्रस्ताव माना कुछ ने आत्मसम्मान को नौकरी के ऊपर रखा। ये क़िस्सा मुझे ऐसे ही एक आत्मसम्मानी ने सुनाया जो अब नौकरी की तलाश मे है।

ये क़िस्सा मीडिया कर्मियों की मजबूरी का किस तरह से फ़ायदा उठाया जा रहा है इसका भी एक बड़ा उदाहरण है। जिस तेज़ी से चैनल उग रहे है उससे साफ़ है ये प्रक्रिया फिर दोहराई जाएगी, इसी तरह मीडिया कर्मियों की मजबूरी का फ़ायदा उठाया जाता रहेगा। एक तामझाम के साथ शुरू हुए चैनल के बंद हो जाने के बाद तो ये डर और बढ़ गया है। मीडिया में क्या जाएगा क्या नही, सेल्फ रेग्यूलेशन कैसे होगा इन सब विषयों के लिए तो कई संगठन बना दिए गए हैं, जिसमें चैनल्स के बड़े बड़े नाम महत्वपूर्ण पदों पर भी हैं, लेकिन मीडिया कर्मियों को इन ज़्यादतियों से बचाने वाला कोई संगठन नहीं है। इस शोषण को अभी नही रोका गया तो इसका और कुरूप चेहरा आने वाले दिनों में देखना होगा। मेरे एक मीडिया भाई ने इस लेख पर अख़बारों का दर्द बयां करते हुए अपनी लिखित प्रतिक्रया भी दी जिसे में अपने इस लेख में शब्दश: जोड़ रहा हूं।

क्या किसी ने क्षेत्रीय अखबारों की हालात का जायजा लेने की कोशिश की है ? क्षेत्रीय अखबार तो शोषण का वो गहरा सुरंग है जहां फंसे तो जीवन पर्यन्त निकलने की छटपटाहट में पहले उम्मीद फिर पत्रकार खुद दम तोड़ देता है। क्या हमारे बीच इन बौद्धिक मजदूरों की सुध लेने वाला कोई नहीं मुझे लगता है फिलहाल कोई नहीं और यकीनन नहीं। तो फिर क्या हालात यूं ही बने रहेंगे। या फिर डर के आगे जीत या कहें उम्मीद है। आखिर बिल्ली के गले में कौन घंटी बांधेगा ? मैं विचार कर रहा हूं। आप भी करें।

कोई अन्याय बयां करता है कोई उसे सहन करके चुप रहता है और कोई इसके ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करता है। करना सब चाहते है लेकिन रोज़ी रोटी डरा देती है अगर एक होकर साथ आएंगे तो मुझे लगता है आवाज़ मज़बूत होगी तो ज़्यादती करने वाले चंद लोग इसे दबा नही पाएंगे। इस आवाज़ को बुलंद करने का अभी तक का आज़माया हुआ तरीक़ा है, संगठन। इन हालात में लाख टके का सवाल यही है की क्या अब “मीडिया मज़दूर संघ” की ज़रुरत है ?

4 टिप्‍पणियां:

sandhyagupta ने कहा…

Aapke blog par aana ek achcha anubhav raha.Shubkamnayen.

Dr. Praveen Tiwari ने कहा…

dhanywad sandhya...

शशि "सागर" ने कहा…

padhne k baad ek hee sawaal mere man me utha....
ki aakhir kab tak.....?
achha laga padhna

Aadarsh Rathore ने कहा…

आपने शब्द अच्छा सुझाया है
मीडिया मज़दूर
सार्थक है