पत्रकार और मक्कार में सिर्फ भय का फर्क होता है। मक्कार चापलूस और डरपोक होता है और पत्रकार निर्भीक और निष्पक्ष। ये तो आदर्श बात हुई लेकिन चाहे अपने निजी स्वार्थों के लिए मीडिया का इस्तेमाल करने वाले पूंजीपति हों या नेताओं की चापलूसी करके अपने मुंह मियां मिठ्ठू बनकर बड़े पत्रकार कहलाने वाले लोग हों, पत्रकार कम... मक्कार इस दौर में ज्यादा दिखाई देते हैं। सालों पहले बंद हुए एक चैनल के बेरोजगार साथियों के
पक्ष में मैंने एक आर्टिकल लिखा था। शीर्षक था, पत्रकार मजदूर संघ की जरूरत। (ब्लॉग में मौजूद है)। मैंने अपने पिता के रूप में सच्चाई के साथ मजदूरों की लड़ाई लड़ने वाले एक शख्स को पाया। उनसे कई बार बहस करता था कि दूसरों के फटे में क्या टांग अड़ाना। अपनी नौकरी देखों उस पर कोई आंच नहीं तो बाकी से क्या फर्क पड़ता है। शायद उनकी संगति का असर था कि अपने पत्रकार साथियों के साथ हुए अन्याय के बाद मैंने शोषित पत्रकार साथियों के साथ खड़े होने को बेहतर विकल्प माना। अाज समझ में आता है कि ये कोई महान काम नहीं है बल्कि एक जरूरी काम है। जो इस गलतफहमी में हैं कि वो किसी के अन्याय का साथ देकर अपना घर सुरक्षित रख लेंगे वो इसके गंभीर परिणामों को भुगतने के बाद एक मिसाल बनेंगे। अब ये भी समझ में आता है कि पत्रकार साथी भी लामबंद नहीं हुए तो सिवाय दलालों के किसी और का सिक्का नहीं चलेगा।
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पत्रकारों को जिंदा जलाए जाने की कठोर निंदा |
कई बड़े पत्रकारों के साथ काम करने के बाद ये तो समझ आ गया कि जो सचमुच पत्रकार हैं वे बेचारे कभी इस पग में कभी उस पग में बंधते रहते हैं और जो तिकड़मी हैं, वे पूंजीपतियों के इशारों पर अपने ही साथियों की बलि चढ़ाते रहते हैं। पत्रकार का हथियार है उसकी निर्भीकता लेकिन एक के बाद एक बेरहमी से नौकरियों से निकाले जा रहे पत्रकार साथियों में किस निर्भीकता को तलाशें? हम असहाय इसीलिए हैं क्यूंकि ये मीडिया भी पैसे वालों के इशारे पर नाचने को मजबूर है। जिन पत्रकारों से उम्मीद थी कि वे दलालों और पत्रकारों के फर्क को बनाए रखेंगे उनका नकाब भी उतर गया है। मीडिया में आने का सपना संजोए पत्रकारिता के छात्रों से जब मिलता हूं तो वो पत्रकारों की निर्भीकता, उनकी ताकत को मीडिया में करियर बनाने की वजह बताते हैं। उन्हें कैसे बताऊं कि इस गली में अच्छे अच्छे गुम हो गए। दलाल बनने की ट्रैनिंग तो कोई दे नहीं सकता और पत्रकार सड़क पर अपने हक के लिए असहाय से बैठे हुए हैं जिन्हें वो देख नहीं पाते। जंतर मंतर पर जिंदा जला दिए गए पत्रकारों पर तो आंसू बहाए ही, साथ ही दिन रात भीतर से जल रहे बेरोजगार हुए साथियों का दर्द भी बांटा। अच्छे दिन वाली सरकार से ये साथी भी उम्मीद लगाए हैं, देखते हैं क्या होता है। इंदौर में मिल बंद होने के बाद मैंने मजदूरों को दुर्गति और उनके परिवार की विभिषिका को नजदीक से देखा है। वो दिन दूर नहीं जब मीडिया के ग्लैमर के पीछे के काले स्याह सच में मिल मजदूरों का यही दौर देखने को मिलेगा। वैसे इसकी झलक तो मिलने ही लगी है। ऐसा नहीं है कि पहले पूंजीपति नहीं थे लेकिन उनकी भूमिका जहां व्यवसायिक पहलू तक सीमित थी तो पत्रकारों और संपादकों की अपनी गरिमा थी। आज जब संपादक और बड़े पदों पर आसीन पत्रकार ही पूंजीपतियो और राजनेताओं के पिठ्ठू बन जाएंगे तो पत्रकारों का एक बहुत बड़ा वर्ग आम लोगों की आवाज बनने के बजाए खुद ही मदद की गुहार लगाते मिलेगा।
3 टिप्पणियां:
आप लिखते हैं, "दलाल बनने की ट्रैनिंग तो कोई दे नहीं सकता". जबकि मेरा अनुभव इसके उलट है. इस पेशे में आने वाले हर नए व्यक्ति को उसके वरिष्ठ सबसे पहले इसी का प्रशिक्षण देते हैं. इस फेन में माहिर हो गया तो फिर मालिकों का कृपा पात्र बन खुद मठाधीश हो जाता है, और अगर असफल रहता है तो नाम मात्र के वेतन के चलते खुद ही बाहर हो जाता है.
ब्लॉग बुलेटिन की १००० वीं बुलेटिन, एक ज़ीरो, ज़ीरो ऐण्ड ज़ीरो - १००० वीं बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
दलाल और मक्कार आज हर पेशे में साँप की तरह फन फैलाये बैठे हैं । दर्शक ही दर्शक हैं हर जगह बोलने वाले बहुत गिने चुने रह गये हैं । वो ही बोलते हैं जिन्हें पिटने पिटाने का शौक रहता है :)
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