मंगलवार, 4 अगस्त 2015

क्या सचमुच आतंकवाद का कोई मज़हब नहीं होता?


मुंबई धमाकों का गुनहगार फांसी पर चढ़ा दिया गया। भारतीय न्यायव्यवस्था और लोकतंत्र की सुंदरता भी दुनिया के सामने आई। इतने बड़े गुनाह के लिए किसी और मुल्क में पकड़े जाने के बाद ही सरेआम किसी को सजा दे दी जाती लेकिन ये हमारे लोकतंत्र की मजबूती है कि हमारे देश में गुनहगार को भी अपना पक्ष रखने का मौका मिलता है। मेमन क्या, कसाब जैसे दुर्दांत पाकिस्तानी आतंकवादी को भी इस देश के कानून ने अपना पक्ष रखने का पूरा अधिकार दिया और सभी कानूनी प्रक्रिया पूरी होने के बाद फांसी पर चढ़ाया गया। जिस मेमन को लेकर बहस छेड़ी गई उसके परिवार के 7 सदस्यों को गिरफ्तार किया गया था इनमें से चार सदस्यों को सितंबर 2012 में रिहा भी कर दिया गया था। 12 दोषी इस मामले के ऐसे थे जिन्हें इसी समय पर मौत की सजा सुनाई गई थी। 20 को उम्र कैद की सजा सुनाई गई इन्हें अधिकार मिला कि उच्चतम न्यायालय में अपील करें और इन्होंने की भी। माननीय कोर्ट ने जिसके लिए थोड़ी भी गुंजाईश देखी उसे राहत दे दी। कई गुनहगार छूट जाएं लेकिन कोई बेगुनाह न सजा पाए के फलसफे पर काम करने में हमारा कानून कामयाब रहा। इसी मेमन परिवार के और भी सदस्यों की मुंबई ब्लास्ट में संदिग्ध भूमिकाएं सामने आना, फिर उनका दोषी भी ठहराया जाना, इस बात को साफ साबित करता है कि मेमन परिवार की कितनी अहम भूमिका इस दुर्दांत आतंकी घटना में रही थी। भगोड़े टाइगर मेमन और दाऊद को असली गुनहगार बताकर याकूब के गुनाह को कम बताने वाले या तो इस मामले से बिलकुल नावाकिफ लोग हैं या वो लोग है जो कभी न कभी इस परिवार या इस मामले से संदिग्ध रूप से जुड़े रहे।
इस फांसी को राजनैतिक रंग देने की कोशिश की गई। इस कोशिश में सांप्रदायिक राजनीति करने वाले चेहरे कुछ हद तक कामयाब भी हुए। इस पर होने वाली बहस ही थी जिसकी वजह से ऐसे कई युवा जो शायद इन धमाकों के समय पैदा भी नहीं हुए थे या बहुत से ऐसे लोग जो इन धमाकों के बारे में जानते भी नहीं है वे हजारों की तादाद में कानून के तहत सजा ए मौत पाए एक आतंकवादी के जनाजे में शामिल हुए। ये भी शायद दुनिया में इसी देश में हो सकता है कि सांप्रदायिक उन्मादियों की इस हरकत की आशंका के बावजूद, फांसी पर चढ़ाए गए मुजरिम के परिवार के प्रति संवेदनाएं दिखाना ज्यादा महत्वपूर्ण माना गया। ये हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की ही ताकत है कि वे लोग जो कभी इस मामले में गिरफ्तार किए गए और बाद में साक्ष्यों के अभाव में बरी कर दिए गए वे भी चैनलों पर इस फांसी का विरोध करने का अधिकार पा पाए। क्या आप दुनिया में किसी ऐसे देश की कल्पना कर सकते हैं जिसकी सर्वोच्च न्यायालय और राष्ट्रपति ने कई याचिकाओं को पढ़ने और खारिज करने बाद जिसे जिसे सजा दी हो उसकी पैरवी करने के लिए चंद सांप्रदायिक राजनीति करने वाले चीखते चिल्लाते नजर आएं। निश्चित ही पूरी दुनिय़ा के सामने हम ये संदेश देने में कामयाब हो पाए हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का असली आनंद इसी देश में लेना संभव है। जो आतंकवाद की सजा में नरमी का समर्थन कर रहे हैं वे न सिर्फ टेलीविजन चैनलों पर बैठें हैं बल्कि हमारी संसद का भी हिस्सा हैं।
वे लोग जो किसी के बहकावे में आकर एक आतंकवादी के लिए जरा भी हमदर्दी महसूस कर रहे हैं उन्हें जानना चाहिए कि उसके समर्थने में उठने वाली आवाजें कौन सी है? इनमें एक हैं एआईएमएम पार्टी के प्रमुख और सांसद असाउद्दीन औवेसी और दूसरे हैं समाजवादी पार्टी के नेता अबु आजमी। औवेसी की राजनीति का आधार सभी जानते हैं वे एक धर्म आधारित पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनकी राजनीति मुस्लिम मतदाताओं के इर्द गिर्द घूमती है। किसी धर्म विशेष का प्रतिनिधित्व बुरी बात नहीं है लेकिन उससे जुड़े लोगों को गुमराह करते हुए किसी मुद्दे को भड़काना एक गलत बात जरूर है। ये गलत बात औवेसी ने मेमन के मुद्दे पर की और उन्हें भरपूर सहयोग मिला तमाम टीवी चैनलों का। इस फांसी ने भारतीय टीवी चैनलों के गैर जिम्मेदाराना रवैए को एक बार फिर उजागर किया है। आप अपनी बहस को आगे बढ़ाने के लिए एक विरोधी और एक समर्थन के पक्ष को लाते हैं। ये बहस को चलाने के जरूरी भी है लेकिन किन मुद्दों पर बहस की जाए ये भी तो विवेक के इस्तेमाल का विषय है? याकूब मेमन जैसे आतंकी की फांसी के बाद उसके जनाजे में उमड़ें हुजूम का जिम्मेदार ये मीडिया भी है। हमारे देश में मीडिया को भी पूरी स्वतंत्रता है लेकिन भेड़ चाल पर चलने वाला मीडिया किसी एक मुद्दे को उठाता है और देखते ही देखते उसे एक बड़ा रूप देने की कवायद में सब जुट जाते हैं। फिर औवेसी जैसे नेताओं को इस पर बोलने का एक सुनहरा अवसर मिल जाता है। इसी अवसर को हथियाने वाले एक और नेता सामने आए अबु आजमी। आजमी भी तमाम चैनलों पर फांसी के खिलाफ जमकर बोलते नजर आए। यहां ये जानना भी जरूरी है कि अबु आजमी भी मुंबई धमाकों के मामले में गिरफ्तार किए गए थे। 10 अप्रैल 1995 को इस मामले में 26 आरोपियों को दोषमुक्त कर दिया गया इनमें उस वक्त के ट्रैवल एजेंट अबु आसिम आजमी भी थे जो अब समाजवादी पार्टी के सांसद हैं। फांसी के फौरन बाद समाजवादी पार्टी का मेमन की पत्नि को राज्यसभा का टिकट देने का मुद्दा उछालना भी घटिया सियासत का ही हिस्सा है। आजमी मेमन की पैरवी करते दिखाई दे रहे थे, लेकिन शायद वे भूल गए कि देश के इसी कानून की पारदर्शिता की वजह से वे न सिर्फ खुली हवा में सांस ले रहे हैं बल्कि सम्मानित सांसद भी हैं।
इस पूरे मामले में याकूब मेमन ने आत्मसमर्पण किया था या उसे गिरफ्तार किया गया को आधार बनाकर बहस को आगे बढ़ाया गया। इस बहस के मूल में एक पूर्व रॉ अधिकारी के कथित आर्टिकल का जिक्र किया गया। कथित इसीलिए क्यूंकि अपने जीते जी उन्होंने कभी ये बात सामने नहीं रखी। उनकी मृत्यू के बाद उनके भाई से इजाजत लेकर एक वेबसाइट ने इसे छापा। इन सभी तथ्यों को सत्य मानकर भी बात करें तो क्या एक पूर्व रॉ अधिकारी के विचार (इस बात की कोई पुष्टि नहीं कि ये उनके विचार हैं या नहीं) देश की सर्वोच्च न्यायालय, संपूर्ण न्याय व्यवस्था, माननीय राष्ट्रपति आदि के विवेक से ऊपर हैं और किसी के अनौपचारिक विचार को आधार बनाकर इन पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया जाए? लेकिन ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का देश है और यहां सभी को अपनी बात कहने का हक है वो चाहे गलत ही क्यूं ना हो। जिन लोगों के मन में याकूब मेमन के प्रति करूणा जागी वे सिर्फ उसकी उम्र, परिवार, फांसी, सियासत जैसी बातों के इर्द गिर्द उलझ कर रह गए। उन्होंने शायद इस मामले के तथ्यों को पढ़ने और समझने की जहमत भी नहीं उठाई होगी। हमारे देश में कई अधिकारी रिटायर होने के बाद लेखन और प्रकाशन की दुनिया में आते हैं। प्रकाशक अपना माल बेचने के लिए उनसे कुछ सनसनीखेज मांगता है और वो कुछ ऐसी बातें लिख देते हैं जो खबरों में आ जाएं। क्या ये धोखेबाजी किसी और मुल्क में संभव है?
कोर्ट ने जब याकूब पर अपना फैसला सुनाया था तो उसमें साफ लिखा था कि उसका और टाइगर मेमन का इन धमाकों में बराबर का हाथ दिखाई देता है। साक्ष्यों, अभियोजन और बचाव पक्ष की बहस, गवाहों को सुनने के बाद ये फैसला लिखा गया और ये फैसला शब्दशः आराम से उपलब्ध भी है, लेकिन टाइगर को असली गुनहगार बताकर याकूब को छोड़ने की बात कहने वालों ने शायद इस फैसले को भी पढ़ने की जहमत नहीं उठाई। याकूब मेमन सिर्फ टाइगर मेमन का भाई नहीं है वो इस गुनाह में बराबर का भागीदार भी था। यदि सिर्फ टाइगर मेमन के परिजनों को निशाना बनाना होता तो उसके परिवार के बाकी सदस्यों को बरी नहीं किया जाता या उम्र कैद की सजा नही दी जाती। ये बात सही है कि टाइगर मेमन और दाऊद जैसे नामों को दबोचना जरूरी है। ये भी एक हौव्वा सा ही लगते हैं जिनके नाम पर कई सालों से राजनीति की जा रही है। इनके चमचों को टीवी पर मौका देकर तो कुछ चैनलों ने तो हदें ही पार कर दी। ये भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाजायज इस्तेमाल का एक बड़ा उदाहरण है। किसी और देश में ऐसे चैनल बंद कर दिए जाते लेकिन हमारे देश में घिघियाता हुआ पत्रकार एक माफिया सरगना से फोन पर बात करता है और चैनल टीआरपी बढ़ाने के लिए उसे ऑन एयर भी कर देता है। ये गंभीर इसीलिए है क्यूंकि देश से अपराध कर फरार हुआ एक कुख्यात अपराधी हमारी कानून व्यवस्था के बारे में अनाप-शनाप बोलता है और हम बेशर्मों की तरह सुनते रहते हैं।

मानवाधिकारों की रक्षा के नाम पर मासूमों के हत्यारों को माफ कर देना हमारी न्यायव्यवस्था को कमजोर करता जाएगा। जो इस फांसी से डरे हैं उनके मन में चोर है। शायद वे इस बात से भयभीत हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रा और बेगुनाह को बचाने के चक्कर में गुनहगारों को भी छोड़ देने वाले देश की व्यवस्था सांप्रदायिक ताकतों को कमजोर न कर दे। सबसे ज्यादा जरूरी है देश को किसी धर्म के चश्में से देखने वालों से बचाना। ये देश अपने संविधान और अपनी व्यवस्था से चलता है। जब इस प्रक्रिया को बाधित किया जाता है तो सिस्टम की खराबी शुरू होती है। जो भ्रष्टाचार आज हम देखते हैं उसके मूल में भी सस्ते तरीकों से अपराध से बच निकलने के तरीके ही मिलेंगे। सजा का प्रावधान सोच समझकर किया गया है और उस पर बहस करने वाले खुद ही को एक्सपोज करते दिखते हैं। धर्म या मजहब से इस फांसी का कोई लेना देना नहीं है। अलबत्ता इसे मजहब से जोड़ना बहुत आसान है इसीलिए मजहबी पार्टियों ने इसका इस्तेमाल किया। इन लोगों को इस तरह की छूट, देश में एक अप्रिय स्थिति तो बनाती ही है। वे लोग जिनका अपराध और राजनीति दोनों से कोई लेना देना नहीं वे भी अंधों की तरह भावनाओं में बहते हैं और अपने दिमाग के कचरे को और बढ़ा लेते हैं। आज किसी से पूछिए तो शान से ये जुमला कहता दिखाई देगा कि आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता लेकिन क्या सचमुच हम इस बात को समझ भी पाते हैं? आतंकवादियों को हीरो बना देने वाले और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर सड़कों पर बहस करने वाले कहीं आतंकवाद को मजहब का रंग देने की साजिश तो नहीं कर रहे हैं?

1 टिप्पणी:

Alok Ranjan ने कहा…

बात आपने बेहद पते की कही है... ये बात सही है कि आतंकवाद का कोई मज़हब नहीं होता... लेकिन जिस तरह से आतंकवाद एक मज़हब के नाम पर पांव पसार रहा है... और जिस तरह उसी मज़हबी आतंकवाद के फंदे में फंसकर हमारे देश के साथ-साथ दूसरे देशों के युवा भी आतंक मचा रहे हैं.. उससे हालात गंभीर हो रहे हैं... और जहां तक मेरी सोच कहती है.. वो दिन ज्यादा दूर नहीं है.. जब तीसरा विश्वयुद्ध शुरु हो जाए.. जिसमें एक पार्टी मज़हबी हो और दूसरी पार्टी में सारी दुनिया शामिल हो...