एक सुन्दर कथन है " प्रवास बाहर से अंदर की ओर होना चाहिए "। योग और अध्यात्म शास्त्र कहता है हम केवल शरीर या इन्द्रियों के भोगी न होकर एक शुद्ध और सूक्ष्म आत्मा हैं । सदियों से असंख्य योगियों, महर्षियों और मनीषियों ने इस सत्य को सिद्ध करने को अपने जीवन का ध्येय माना। इसे मनुष्य के लिए मानना कठिन होगा किन्तु इसकी प्रचिती में बिलकुल समय नहीं लगता। वेदांतो में इस विषय पर लिखा भी गया है और ज्ञानियों से हम सुनते भी है सत्य की इस प्राप्ति को करने के लिए कहीं जाना नहीं होता। ये सत्य हमारे भीतर ही है।
बहुत आश्चर्य की बात है जो चीज हमारे पास है हमारे ही भीतर है परन्तु उस तक पहुंचना इतना कठिन क्यों प्रतीत होता है? तब ये बाहर से अंदर का प्रवास कैसे हो? अपनी शुद्ध आत्मा का ज्ञान कैसे हो? भोग के स्तर से ऊपर उठकर इन्द्रियों के आगे निहित उस सूक्ष्मता को कैसे जानें?
मनुष्य स्वभाव पराधीन होता है और ये पराधीनता ही कष्टों का कारण होती है। हम अपनी इन्द्रियों के पराधीन हो जाते है। उसी समय मनुष्य स्वाधीनता की प्राप्ति के लिए लालायित भी होता है। एक पुराना उदाहरण यहाँ सटीक बैठता है। एक व्यक्ति जिसे मदिरापान में दिलचस्पी है और उसका सेवक उसकी इस इच्छा की आपूर्ति करता रहता है। जिस दिन सेवक ने आपूर्ति के साथ आपकी पंक्ति में बैठकर मदिरापान कर लिया समझ लीजिए उसने अपनी सेवाओं से त्यागपत्र दे दिया। उसकी इन सेवाओं के आधीन आप कब उसके सेवक और वह आपका मालिक बन जायेगा ये पता भी नहीं चलेगा। ऐसा ही कुछ खेल इन्द्रिया भी खेलती है। ये हमारे लिए सेवक ही होती है किंतु इनका उपभोग करते करते ये हम पर हावी हो जाती है। हम अपने मन को ही जीवन ऐसा परिभाषित करते हैं और मन के द्वारा हम पर अधिकार जताती हमारी इन्द्रियां। ये जीवन नहीं वरन माया का संसार कहलाता है।
ये माया का संसार या मायाजाल कोई और नहीं हम स्वयं ही बनाते है। अब हम भ्रमित हो जाते है कि इसमें से कैसे निकले? जब इस जाल के बुनकर हम है तो कोई और कैसे इससे हमें निकाल सकता है? इस आभासी जीवन अर्थात माया जाल से निकलना केवल स्वयं कि शक्ति है। कहा जाता है कि घोड़े कि रकाब में पाँव देने के लिए प्रयत्न करना कठिन हो सकता है किन्तु ईश्वर को प्राप्त करना नहीं क्यूंकि ये प्रवास व्यक्तिगत आनंद का है।
ये विषय हमारे वेदांतो या योग शास्त्रों में बहुत ही अभ्यासपूर्ण तरीके से विदित है। भारतीय उपनिषदों और ग्रंथों में भी ईश्वर प्राप्ति और इन्द्रियों पर स्वयं के अधिकार पर चर्चा है। सभी वेद भी इसी पारधीनता से स्वाधीनता के पथ की बात करते है। जब स्वाधीनता कि प्राप्ति, इन्द्रियों पर अधिकार और माया जाल के इस आभासी जीवन से बाहर आना सभी कुछ हमारे भीतर है तो हमें दिखाई क्यों नहीं देता? दूसरे शब्दों में इस सत्य का ज्ञान और प्राप्ति हमें क्यों नहीं?
ऐसा कहा जा सकता है कि हमें समस्या पता है उसका समाधान भी पता है किन्तु समाधान तक न पहुंच पाना दुःख और कष्ट का कारण है।
स्वामी बुदानन्द अपनी पुस्तक इच्छाशक्ति और उसका विकास में समझाते हुए बताते है कि हर व्यक्ति को पता है उचित क्या है और अनुचित क्या है? किन्तु हम उचित की ओर अग्रसर भी नहीं होते और अनुचित का आकर्षण भी त्याग नहीं पातें।
इन्द्रियों के विषय में पराधीनता का अर्थ होता है हम उनके द्वारा चलाये जा रहे हैं। हमारी पांच इन्द्रियां कुरुक्षेत्र में दौड़ते भगवन श्री कृष्ण के रथ के पांच घोड़ों जैसी प्रतीत होती है। इन पांच घोड़ों का स्वामी हो जाना उन्हें उनकी गति से न जानें देकर अपनी इच्छाशक्ति के अधीन कर लेना ही परम आत्मतत्व की प्राप्ति है। तात्पर्य हम स्वयं ही स्वयं के स्वामी बन जाएँ। किसी और पर अपनी सत्ता को सिद्ध करने में हम जीवन का कितना समय व्यर्थ कर देते हैं। किसी दूसरे को अपने अधीन कर उसका स्वामी बनने का अट्टहास करते हैं। बल्कि हमें स्वयं का स्वामित्व प्राप्त करना अधिक आकर्षक लगना चाहिये। बड़े बड़े योगी सिद्ध पुरुषों के नाम के साथ 'स्वामी' शब्द का जुड़ा होना भक्तों से नहीं वरन उनसे ही होता है। दूसरों का स्वामी तो इन्द्रियों की विकृति और निर्बलता को दर्शाता है। वही स्वयं का स्वामी हो जाना ही ईश्वर प्राप्ति का मार्ग है। यही आत्मज्ञान हमें भीतर ले जाता है। आत्मज्ञान का तात्पर्य ही है इन्द्रियों की पराधीनता की सवारी त्याग करें , स्वयं को जानें, आभासी मायाजाल से बाहर आये और स्वामित्व को प्राप्त करें, स्वयं के स्वामी बनें।
परन्तु प्रश्न वही रहता है की इस सब की प्राप्ति की लिए मन का निग्रह कैसे हो? संकल्प कैसे हो? भगवद गीता में भगवन श्रीकृष्ण इसे बड़ी सरलता से समझाते हैं अभ्यास ही केवल मन के वैराग्य को प्राप्त करने का मार्ग हो सकता है। अपनी पुस्तक " सत्य की खोज " में एक अभ्यास नामक अध्याय में मैंने उल्लेख किया है। जिस प्रकार सतत शारीरिक व्यायाम शारीरिक सौष्ठव, शक्ति और बल देता है। इस बाह्य जगत की तरह अंतर्मन को भी अभ्यास नामक भोजन देना आवश्यक होता है। मनोनिग्रह के अभ्यास के लिए जहां और जब आपको लगे कि इंद्रिया या उनका माया जाल पीछे की ओर धकेल रहा है तो उसके विपरीत व्यवहार करना हितकर सिद्ध होगा। इस विपरीत दिशा का प्रवास सरल नहीं होगा बल्कि बाधाओं से भरा होगा। इंद्रिया अपनी सत्ता खो देने के भय से अधिक विरोधी प्रतीत होंगी। स्वयं का स्वामी बनने के इस प्रवास में इस तरह के संकटों से निपटना भी अभ्यास से ही आता है। इस बाहर से भीतर के प्रवास में छोटी छोटी सफलताएं प्रोत्साहित करती है। आप बल और विश्वास की अनुभूति करते हैं और ये अनुभूति ही स्वयं के स्वामी हो जानें के मार्ग की पथप्रदर्शक होती है। इसलिए मन का निग्रह, वैराग्य और स्वाधीनता की ओर अग्रसर होने का अभ्यास आवश्यक है। यही अभ्यासु प्रवृत्ति कालावधि में बल प्रदान करती है और ये बल किसी भी शारीरिक या सामाजिक बल से कहीं ऊपर होता है। मनोनिग्रह और अभ्यास ही पराधीनता के सागर से स्वाधीनता का किनारा दर्शाता है, बाहर से भीतर के प्रवास का आंनद देता है और स्वयं के स्वामित्व को प्राप्त करने में सहायता करता है।
बहुत आश्चर्य की बात है जो चीज हमारे पास है हमारे ही भीतर है परन्तु उस तक पहुंचना इतना कठिन क्यों प्रतीत होता है? तब ये बाहर से अंदर का प्रवास कैसे हो? अपनी शुद्ध आत्मा का ज्ञान कैसे हो? भोग के स्तर से ऊपर उठकर इन्द्रियों के आगे निहित उस सूक्ष्मता को कैसे जानें?
मनुष्य स्वभाव पराधीन होता है और ये पराधीनता ही कष्टों का कारण होती है। हम अपनी इन्द्रियों के पराधीन हो जाते है। उसी समय मनुष्य स्वाधीनता की प्राप्ति के लिए लालायित भी होता है। एक पुराना उदाहरण यहाँ सटीक बैठता है। एक व्यक्ति जिसे मदिरापान में दिलचस्पी है और उसका सेवक उसकी इस इच्छा की आपूर्ति करता रहता है। जिस दिन सेवक ने आपूर्ति के साथ आपकी पंक्ति में बैठकर मदिरापान कर लिया समझ लीजिए उसने अपनी सेवाओं से त्यागपत्र दे दिया। उसकी इन सेवाओं के आधीन आप कब उसके सेवक और वह आपका मालिक बन जायेगा ये पता भी नहीं चलेगा। ऐसा ही कुछ खेल इन्द्रिया भी खेलती है। ये हमारे लिए सेवक ही होती है किंतु इनका उपभोग करते करते ये हम पर हावी हो जाती है। हम अपने मन को ही जीवन ऐसा परिभाषित करते हैं और मन के द्वारा हम पर अधिकार जताती हमारी इन्द्रियां। ये जीवन नहीं वरन माया का संसार कहलाता है।
ये माया का संसार या मायाजाल कोई और नहीं हम स्वयं ही बनाते है। अब हम भ्रमित हो जाते है कि इसमें से कैसे निकले? जब इस जाल के बुनकर हम है तो कोई और कैसे इससे हमें निकाल सकता है? इस आभासी जीवन अर्थात माया जाल से निकलना केवल स्वयं कि शक्ति है। कहा जाता है कि घोड़े कि रकाब में पाँव देने के लिए प्रयत्न करना कठिन हो सकता है किन्तु ईश्वर को प्राप्त करना नहीं क्यूंकि ये प्रवास व्यक्तिगत आनंद का है।
ये विषय हमारे वेदांतो या योग शास्त्रों में बहुत ही अभ्यासपूर्ण तरीके से विदित है। भारतीय उपनिषदों और ग्रंथों में भी ईश्वर प्राप्ति और इन्द्रियों पर स्वयं के अधिकार पर चर्चा है। सभी वेद भी इसी पारधीनता से स्वाधीनता के पथ की बात करते है। जब स्वाधीनता कि प्राप्ति, इन्द्रियों पर अधिकार और माया जाल के इस आभासी जीवन से बाहर आना सभी कुछ हमारे भीतर है तो हमें दिखाई क्यों नहीं देता? दूसरे शब्दों में इस सत्य का ज्ञान और प्राप्ति हमें क्यों नहीं?
ऐसा कहा जा सकता है कि हमें समस्या पता है उसका समाधान भी पता है किन्तु समाधान तक न पहुंच पाना दुःख और कष्ट का कारण है।
स्वामी बुदानन्द अपनी पुस्तक इच्छाशक्ति और उसका विकास में समझाते हुए बताते है कि हर व्यक्ति को पता है उचित क्या है और अनुचित क्या है? किन्तु हम उचित की ओर अग्रसर भी नहीं होते और अनुचित का आकर्षण भी त्याग नहीं पातें।
इन्द्रियों के विषय में पराधीनता का अर्थ होता है हम उनके द्वारा चलाये जा रहे हैं। हमारी पांच इन्द्रियां कुरुक्षेत्र में दौड़ते भगवन श्री कृष्ण के रथ के पांच घोड़ों जैसी प्रतीत होती है। इन पांच घोड़ों का स्वामी हो जाना उन्हें उनकी गति से न जानें देकर अपनी इच्छाशक्ति के अधीन कर लेना ही परम आत्मतत्व की प्राप्ति है। तात्पर्य हम स्वयं ही स्वयं के स्वामी बन जाएँ। किसी और पर अपनी सत्ता को सिद्ध करने में हम जीवन का कितना समय व्यर्थ कर देते हैं। किसी दूसरे को अपने अधीन कर उसका स्वामी बनने का अट्टहास करते हैं। बल्कि हमें स्वयं का स्वामित्व प्राप्त करना अधिक आकर्षक लगना चाहिये। बड़े बड़े योगी सिद्ध पुरुषों के नाम के साथ 'स्वामी' शब्द का जुड़ा होना भक्तों से नहीं वरन उनसे ही होता है। दूसरों का स्वामी तो इन्द्रियों की विकृति और निर्बलता को दर्शाता है। वही स्वयं का स्वामी हो जाना ही ईश्वर प्राप्ति का मार्ग है। यही आत्मज्ञान हमें भीतर ले जाता है। आत्मज्ञान का तात्पर्य ही है इन्द्रियों की पराधीनता की सवारी त्याग करें , स्वयं को जानें, आभासी मायाजाल से बाहर आये और स्वामित्व को प्राप्त करें, स्वयं के स्वामी बनें।
परन्तु प्रश्न वही रहता है की इस सब की प्राप्ति की लिए मन का निग्रह कैसे हो? संकल्प कैसे हो? भगवद गीता में भगवन श्रीकृष्ण इसे बड़ी सरलता से समझाते हैं अभ्यास ही केवल मन के वैराग्य को प्राप्त करने का मार्ग हो सकता है। अपनी पुस्तक " सत्य की खोज " में एक अभ्यास नामक अध्याय में मैंने उल्लेख किया है। जिस प्रकार सतत शारीरिक व्यायाम शारीरिक सौष्ठव, शक्ति और बल देता है। इस बाह्य जगत की तरह अंतर्मन को भी अभ्यास नामक भोजन देना आवश्यक होता है। मनोनिग्रह के अभ्यास के लिए जहां और जब आपको लगे कि इंद्रिया या उनका माया जाल पीछे की ओर धकेल रहा है तो उसके विपरीत व्यवहार करना हितकर सिद्ध होगा। इस विपरीत दिशा का प्रवास सरल नहीं होगा बल्कि बाधाओं से भरा होगा। इंद्रिया अपनी सत्ता खो देने के भय से अधिक विरोधी प्रतीत होंगी। स्वयं का स्वामी बनने के इस प्रवास में इस तरह के संकटों से निपटना भी अभ्यास से ही आता है। इस बाहर से भीतर के प्रवास में छोटी छोटी सफलताएं प्रोत्साहित करती है। आप बल और विश्वास की अनुभूति करते हैं और ये अनुभूति ही स्वयं के स्वामी हो जानें के मार्ग की पथप्रदर्शक होती है। इसलिए मन का निग्रह, वैराग्य और स्वाधीनता की ओर अग्रसर होने का अभ्यास आवश्यक है। यही अभ्यासु प्रवृत्ति कालावधि में बल प्रदान करती है और ये बल किसी भी शारीरिक या सामाजिक बल से कहीं ऊपर होता है। मनोनिग्रह और अभ्यास ही पराधीनता के सागर से स्वाधीनता का किनारा दर्शाता है, बाहर से भीतर के प्रवास का आंनद देता है और स्वयं के स्वामित्व को प्राप्त करने में सहायता करता है।